विश्वदीप नाग, स्वतंत्र पत्रकार, भोपाल

किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र में सियासी बहस का बहुत ही अहम स्थान होता है, लेकिन हमारे देश में दुर्भाग्य से बहस पर 'भक्तों' का कब्ज़ा हो गया है। 'भक्तों' की आस्था लोकतंत्र में कम और अपने नेता में ज्यादा होती है। सियासत में 'भक्त' शब्द शायद इसलिए चलन में आया है क्योंकि अब चुनाव के माध्यम से हम देश को चलाने वाले नेता नहीं, बल्कि आराध्य देव निर्वाचित करने लगे हैं। भारत में सियासत के इन अनन्य  'भक्तों' की सम्पूर्ण प्रजाति का जन्म चूँकि चार-पांच साल पहले ही हुआ है, इसलिए इन पर व्यापक अनुसंधान की नितांत आवश्यकता है। अभी इनके जो लक्षण उभर कर सामने आ रहे हैं, उनमें कुतर्क करने की अद्भुत क्षमता, बहस को मूल विषय से भटकाने में महारथ, बहस को अंतहीन खींचने की असीमित नकारात्मक ऊर्जा, अनियंत्रित आवेग और तर्कों की धार कुंद होने पर अपशब्दों के इस्तेमाल से परहेज़ नहीं करना आदि मुख्य रूप से शामिल हैं। इनमें से ज्यादातर 'भक्तों' के तर्क एक समान अर्द्ध ज्ञान, अर्द्ध सत्य और कुज्ञान पर आधारित हैं। ईश्वर ने इंसान को सोचने के लिए दिमाग जैसा अनमोल उपहार दिया है। सियासत के चालाक खिलाड़ियों ने अब इस दिमाग को अपने कब्जे में लेने का खेल खेला है।  नोर्वे के पूर्व प्रधानमंत्री और नोबल पीस कमेटी के सदस्य थोबियन यांगलंद [ Thorbjørn Jagland ] का कथन है,  '' अब हम ऐसे दौर में जी रहे है, जहाँ ताकत उनके हाथ में आती जा रही है, जिनका अफसाना या कथानक [प्रचार ] जीतता है। भूंडलीकरण से बने नए विश्व में भुजाओ की ताकत अब कोई मायने नहीं रखती। यही वजह है कि अब इंसान के दिमाग को मुट्ठी में करने की होड़ मची हुई है। "

 सियासत के इन 'भक्तों' का दिमाग अब उनकी अपनी- अपनी आस्था वाले नेताओं और उनकी वैचारिक धारा की गिरफ्त में है। बहस सिर्फ एक दिशा में चल रही है। स्वाभाविक रूप से कोई भी 'भक्त' अपने आराध्य देव के खिलाफ कोई बात किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं करता, लेकिन सत्ताधीशों को आराध्य देव मान लेने की मानसिकता लोकतंत्र की सेहत के लिए ठीक नहीं है।
सरकार के हर फैसले को गुण-दोष की तराजू में तौलने का पूरा हक़ जनता को है। बुद्धिजीवी और श्रमजीवी पत्रकार यह काम पहले भी करते रहे हैं, लेकिन आज उन्हें 'भक्तोँ' की सम्पूर्ण प्रजाति की गालियां सुननी पड़ रही हैं। कई वरिष्ठ पत्रकार और बुद्धिजीवी तो सोशल मीडिया पर दिन-रात 'भक्तों' की गालियां खा रहे हैं। इसका नतीजा यह हुआ है कि सियासी बहस का पूरा शरीर 'क्षय' और 'कुष्ठ' जैसी गंभीर बीमारियों से ग्रस्त हो गया है। जो व्यक्ति नश्वर इंसान को आराध्य देव मान ले, तो ऐसे व्यक्ति को रोगी समान ही मानना चाहिए। मेरे  कई वरिष्ठ पत्रकार मित्रों को मैं यही सलाह देना चाहूंगा कि वे इन 'भक्तों' को जवाब देकर अपना रक्तचाप बिलकुल नहीं बढ़ाएं। विपश्यना साधना में मुझे सिखाया गया था कि जीवन में सब कुछ अनित्य है। यह सिद्धांत इन सियासी 'भक्तों' पर भी लागू होगा। इंसान तो इतना स्वार्थी होता है कि यदि उसकी कोई मनोकामना पूरी नहीं होती, तो एक मंदिर छोड़कर दूसरे मंदिर जाना शुरू कर देता है, तो इन सियासी आराध्य देवों की बिसात ही क्या है। इन 'सियासी भक्तों' की साधना में बिलकुल खलल नहीं डालें। मेरी तो इच्छा सिर्फ यही है कि ‘सियासी भक्तों’ पर शोध के लिए कोई अनुसंधान केंद्र बन जाए ताकि लोकतंत्र की रक्षा के लिए कोई ‘साइकोलॉजिकल मॉडल’ तैयार किया जा सके। वैसे मैं भी जानता हूँ ऐसा कुछ होने वाला नहीं है, पर सुझाव दिमाग़ में आया तो सामने रख दिया।

Source : विश्वदीप नाग, स्वतंत्र पत्रकार, भोपाल